'ओङ्गकार' कोई व्यक्ति या आकृति विशेष नहीं है ,अपितु दिव्यशक्ति है , जो इस ब्रह्माण्ड का संचालन कर रही है। सभी प्राणायाम करने के बाद श्वास-पश्वास पर अपने मन को टिकाकर प्राण के साथ उदगीथ 'ओ३म 'ध्यान करे। भगवान भ्रुवों की आकृति ओङ्गकारमयी बनाई है। यह पिण्ड तथा समस्त ब्रह्माण्ड ओङ्गकारमयी है। द्रष्टा बनकर दीर्घ व् सूक्ष्म गति से श्वास को लेते व् छोड़ते समय श्वास की गति इतनी सूक्ष्म होनी चाहिए स्वयं को भी श्वास की ध्वनि की अनुभूति न हो। धीरे धीरे अभ्यास बढाकर प्रयास करके एक मिनिट में एक श्वास तथा एक पश्वाश चले। प्रारम्भ में श्वास के स्पर्श की अनुभूति मात्र नासिकाग्र पर होगी। धीरे -धीरे श्वास के गहरे स्पर्श को भी अनुभव कर सकेंगे। इस प्रकार कुछ समय तक श्वास के साथ साक्षीभावपूर्वक ओङ्गकार जप करने से ध्यान स्वतः होने लगता है। प्रणव के साथ वेदों के महान मन्त्र गायत्री का भी अर्थपूर्वक जाप व् ध्यान किया जा सकता है। सोते समय इस प्रकार ध्यान करते हुए सोना चाहिए ,ऐसा करने से निंद्रा भी योगमयी हो जाती है। दू:स्वप्न से भी छुटकारा मिलेगा तथा निंद्रा शीघ्र आएगी।
बिना व्यायाम के शरीर अस्वस्थ हो जाता है,शरीर को चलाने के लिए जैसे आहार की ज़रूरत है वैसे ही आसान-प्राणयम आदि व्यायाम ज़रूरी है.नियमित रूप से व्यायाम करने से दुर्बल,स्वस्थ ओर सुंदर बन जाता है.मधुमेह,मोटापा,वात रोग.गेस,मानसिक तनाव ये सभी रोग का कारण शारीरिक श्रम का अभाव है.व्यायाम के कई प्रकार है इसमे आसन-प्राणायाम सर्वोतम है.
Tuesday, December 9, 2014
ओङ्गकार जप(Ong kar Jap)
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